मैं उस दिन कॉलेज के गेट के पास खड़ी ऑटो का इंतज़ार कर रही थी।
दोपहर की धूप, थकान, बैग भारी…
और जेब में बस 40 रुपये बचे थे।
ऐसा लगता था जैसे जिंदगी हर दिन मुझसे एक परीक्षा ले रही हो।
तभी एक काला SUV मेरे पास आकर रुकी।
शीशा नीचे हुआ…
और एक आदमी ने बाहर झांककर कहा—
“आप रोज़ इस वक्त यहीं खड़ी होती हैं ना?
कहीं जाना हो तो मैं छोड़ सकता हूँ।
College area safe नहीं होता।”
वह पहली बार था जब मैंने रोहित मल्होत्रा को देखा।
लगभग 40 साल की उम्र,
महंगे कपड़े,
घड़ी चमकती हुई,
और एक ऐसा confidence
जो सिर्फ पैसों से आता है।
मैंने politely कहा—
“नहीं, मैं निकल जाऊँगी। कोई दिक्कत नहीं।”
वह मुस्कुराया।
उस मुस्कान में एक अजीब-सी नरमी थी,
जैसे किसी बड़े का concern।
“मैं रोहित हूँ।
आपका कॉलेज रोज़ रास्ते में पड़ता है।
आप चाहें तो लिफ्ट दे सकता हूँ।
Don’t worry, मैं कोई गलत इंसान नहीं हूँ।”
मैंने मना कर दिया।
लेकिन वह रोज़ दिखने लगा।
कभी गाड़ी से हाथ हिलाता।
कभी पूछता—
“ऑटो नहीं मिला?”
कभी पानी की बोतल देता—
“धूप बहुत है, हीटस्ट्रोक हो जाएगा।”
धीरे-धीरे
मुझे उसकी बातें अच्छी लगने लगीं।
शायद इसलिए क्योंकि मेरे घर में
कभी किसी को मेरे थकने की भी फिक्र नहीं होती थी।
एक दिन ऑटो वाले ने दुगुना किराया मांग लिया
और मेरी जेब में पैसे कम थे।
तभी रोहित वहीं आ गया और बोला—
“आओ बैठो, मैं छोड़ देता हूँ।
शर्माना मत।
कभी-कभी किसी का सहारा लेना ग़लत नहीं होता।”
उस दिन
मैं पहली बार उसकी गाड़ी में बैठी थी।
गाड़ी की खुशबू,
AC की ठंडक,
उसका gentle बोलना—
सब मुझे अजीब-सा comfort दे रहे थे।
रास्ते में उसने पूछा—
“तुम बहुत मेहनती लगती हो।
Part-time job करती हो?”
मैंने धीमे से कहा—
“नहीं… लेकिन करना पड़ेगा। घर का खर्चा… फीस… सब मुश्किल है।”
वह कुछ सेकंड चुप रहा।
फिर बोला—
“सिया… तुम deserve करती हो आराम,
खुशी,
और कोई जो तुम्हें समझे।”
ये पहली बार था
जब किसी ने मेरे नाम के साथ “तुम deserve करती हो” कहा था।
मैं खामोश हो गई।
शायद इसलिए क्योंकि दिल ने
कई साल बाद किसी की बात को अपनाया था।
उसने मुझे मेरे हॉस्टल के सामने छोड़ा
और जाते-जाते बोला—
“अगर कभी किसी चीज़ की जरूरत हो…
बस एक कॉल कर देना।
मैं तुम्हारा अपना हूँ, सिया।”
उसके “अपना हूँ” वाले शब्द
मेरे कानों में घंटों गूंजते रहे।
मैं उस रात सो नहीं पाई।
सोचती रही—
क्या यह सच में मेरी फिक्र करता है?
क्या मेरी जिंदगी में कोई ऐसा इंसान आया है
जो मुझे प्यार दे सकता है?
मुझे नहीं पता था
कि यही सोच,
यही कमजोरी,
यही अकेलापन…
मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा धोखा बनने वाला है।
रोहित ने सिर्फ शुरुआत की थी—
असली खेल तो अभी बाकी था।
रोहित अब रोज़ मेरे कॉलेज के पास दिखाई देने लगा था—
कभी गाड़ी से हाथ हिलाता,
कभी हल्की मुस्कान देकर पूछ लेता—
“थकी हुई लग रही हो… ठीक हो ना?”
मैं सोचने लगी थी—
क्या वह सच में मेरी किसी से ज्यादा परवाह करता है?
मेरे घर में किसी के पास मेरे लिए वक्त नहीं होता था।
माँ काम में,
पिता अपनी परेशानियों में,
और मैं…
मैं हमेशा चुपचाप सब सहन करती रहती।
रोहित का “कैसी हो?”
मेरे लिए किसी दवा जैसा लगने लगा।
एक दिन उसने कहा—
“चलो, कॉफ़ी पीते हैं।
बस दो मिनट की बात है।
मैं तुम्हारी smile देखना चाहता हूँ।”
मैंने मना करना चाहा,
लेकिन पता नहीं क्यों…
मेरे कदम खुद उसकी गाड़ी के पास चले गए।
कॉफ़ी शॉप में वह बहुत धीरे बोल रहा था—
ऐसे जैसे उसे सच में डर हो कि मैं परेशान हो जाऊँगी।
“तुम बहुत अकेली रहती हो,
तुम्हें संभालने वाला कोई होना चाहिए।”
मैंने अपने हाथों को मेज़ के नीचे छुपा लिया,
क्योंकि उन्हें काँपना रोकना मुश्किल हो रहा था।
वह धीरे से मेरी तरफ झुका और बोला—
“सिया… मैं तुम्हारे लिए हूँ।
तुम सिर्फ 22 की हो…
पर तुम बहुत झेल रही हो।
मुझे तुम्हारी फिक्र होती है।”
पहली बार
मुझे लगा कि कोई मुझे महसूस कर रहा है।
उसने मेरा बैग पकड़ा,
और बोला—
“भारी है… तुम्हारे कंधों पर बहुत बोझ है।
बस मुझे एक मौका दो…
तुम्हें आराम देने का।”
उसकी बातों में एक नरमी थी,
जो मेरे दिल को बाँधती जा रही थी।
दूसरे दिन मेरा फोन आया।
रोहित था।
“तुमने ठीक से खाना खाया?”
किसी ने मेरे लिए यह सवाल कभी नहीं पूछा था।
मैसेज पर भी—
“ज्यादा धूप में मत चलना।”
“Assignment कठिन है?
बताओ मैं help करता हूँ।”
“सिया, तुम बहुत मासूम हो… खुद को थकाओ मत।”
धीरे-धीरे
उसके मैसेज मेरी ज़रूरत बन गए।
मुझे अब बुरा लगता था
अगर वह मैसेज न करे।
एक दिन उसने मुझे एक छोटा सा गिफ्ट दिया—
एक प्यारी सी कंगन।
मैंने घबराते हुए कहा—
“रोहित… मैं यह नहीं ले सकती।”
वह मुस्कुराया—
“प्यार में लेने-देने की बात नहीं होती, सिया।
यह तुम पर अच्छा लगेगा…
और हाँ,
तुम मेरी special हो।”
मेरे कान लाल हो गए।
मैंने कंगन पहना,
और आँखें नीचे झुका लीं।
उसका चेहरा देखकर लग रहा था
जैसे वह मेरे शर्माने को enjoy कर रहा हो।
उसके बाद से
वह मुझे बहुत बार “जान”, “मेरी पसंद”, “शहद” जैसी बातें कहने लगा।
पहले मैं हँसकर टाल देती,
लेकिन धीरे-धीरे
वह मेरे अंदर जगह बनाता गया।
और मेरे अंदर एक अजीब डिपेंडेंसी पैदा होने लगी।
सबसे बड़ा झटका तो तब लगा
जब एक दिन उसने कहा—
“सिया… तुम मुझसे भी ज्यादा अकेली हो।
मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकता।
अगर तुम हाँ कहो…
तो मैं ज़िंदगी भर तुम्हारे साथ रहूँ।”
मेरी सांस अटक गई।
क्या वह सच में मुझसे इतना प्यार करता है?
या यह सिर्फ मेरी इच्छा थी
जो मैं उसके शब्दों में ढूँढ लेती थी?
मैंने पूछा—
“क्यों?
मैं कोई अमीर, सुंदर लड़की नहीं हूँ…
मैं तुम्हारे लायक नहीं।”
उसने मेरे हाथ के ऊपर अपना हाथ रखा—
हल्का, सुरक्षित, छलावे वाला स्पर्श।
“लायक?
सिया…
तुमसे अच्छा मुझे कोई मिल ही नहीं सकता।”
मेरी आँखें नम हो गईं।
क्योंकि यह पहली बार था
जब किसी ने मुझे “काबिल” कहा था।
उसने मेरे आँसू पोंछते हुए कहा—
“अब मैं हूँ ना…
तुम्हारे सारे डर खत्म हो जाएँगे।”
और मैं…
मैं टूट रही थी
और उसी समय
उसी के सहारे उठ भी रही थी।
मुझे नहीं पता था
कि रोहित की हर मीठी बात
मेरे अंदर एक जाल का धागा बन रही थी।
एक ऐसा जाल
जिसमें मैं
प्यार नहीं,
ज़रूरत समझकर फँस रही थी।
रोहित बाहर से एक सहारा था—
अंदर से एक शिकारी।
और मैं…
उसे अपना भगवान समझने लगी थी।
लेकिन मुझे अंदाज़ा भी नहीं था
कि यह भगवान
कुछ समय बाद
मेरी सबसे बड़ी गलती साबित होने वाला था।
मैं रोज़ रोहित से बात करती थी—
सुबह गुड मॉर्निंग,
रात को गुड नाइट,
बीच में कुछ प्यारी बातें,
थोड़ी चिंता,
थोड़ा प्यार,
थोड़ी मिठास…
और धीरे-धीरे
मेरी दुनिया में बाकी सब फीका पड़ गया।
अगर वह दो घंटे तक मैसेज नहीं करता,
तो मेरे सीने में अजीब-सी घबराहट होने लगती।
मैं खुद से पूछती—
“क्या वो नाराज़ है?
क्या मैंने कुछ ग़लत कर दिया?”
मुझे पहली बार एहसास हुआ
कि मैं उससे सिर्फ बात नहीं करती…
बल्कि उसके बिना रह नहीं पा रही थी।
एक दिन उसने कहा—
“सिया, तुम मेरी हो…
और मैं नहीं चाहता कि तुम किसी और लड़के से बात करो।
तुम जानती नहीं, दुनिया कितनी गंदी है।”
पहले तो यह बात मुझे मीठी लगी—
कोई मेरी इतनी चिंता कर रहा था।
लेकिन धीरे-धीरे
यह मीठी possessiveness
एक बंधन बनते जा रही थी।
वह पूछता—
“कहाँ जा रही हो?”
“किससे बात की?”
“किसने दिल दुखाया? नाम बताओ।”
“कितने बजे सोई?”
“मोबाइल पर इतनी देर कौन था?”
शुरू-शुरू में मैं सब बता देती थी।
क्योंकि मुझे लगता था—
कोई मेरी परवाह कर रहा है।
पर सच धीरे-धीरे सामने आया।
एक शाम,
मैं अपनी क्लासमेट से हँसकर बात कर रही थी
जब अचानक एक हाथ ने मेरी कलाई पकड़ ली।
मैं चौंक गई—
रोहित!
वह गुस्से से भरा हुआ था—
इसके बावजूद आवाज़ में मीठा ज़हर था।
“इतना हँस रही थी?
बहुत मज़ा आ रहा था ना उससे बात करके?”
मैं डर गई।
पहली बार डर…
क्योंकि उसकी पकड़ में
एक अजीब-सा दबाव था।
मैंने धीरे से कहा—
“वो बस क्लास का दोस्त है…”
लेकिन उसने मेरी बात काट दी—
“मुझे पसंद नहीं कि तुम किसी लड़के के साथ मुस्कुराकर बात करो।
तुम मेरी हो।
और मुझे बुरा लगता है जब तुम किसी और के करीब होती हो।”
उसका “मेरी हो”
पहले मीठा लगता था…
लेकिन उस दिन
वह एक आदेश की तरह लगा।
मैं उसके सामने चुप रही—
क्योंकि मुझे डर था
कि अगर मैं बोलूँगी
तो वह मुझसे नाराज़ हो जाएगा।
रोहित ने मेरा हाथ छोड़ दिया
और अचानक मेरी ठुड्डी उठाकर बोला—
“सिया…
तुम्हें हमेशा मेरी बात सुननी चाहिए।
मैं तुम्हारे लिए सबसे अच्छा चाहता हूँ।”
उसका चेहरा प्यार जैसा दिख रहा था…
लेकिन उसकी आँखों में एक अजीब-सी पकड़ थी।
जैसे वह मुझे पढ़ रहा हो,
मुझ पर नियंत्रण पा रहा हो।
उस रात
उसने मुझे मैसेज किया—
“अगर तुम सच में मुझसे प्यार करती हो…
तो मुझे किसी और के सामने हँसकर मत दिखाना।”
मैंने “हाँ” लिख दिया…
क्योंकि मैं उसे खोना नहीं चाहती थी।
उसके बाद से
मैंने अपनी हँसी रोक ली।
अपनी ज़िंदगी छोटी कर ली।
लोगों से बात करना छोड़ दिया।
दोस्तों से दूरी बना ली।
मेरी दुनिया
रोहित के मैसेज,
रोहित की आवाज़,
रोहित की फिक्र
और रोहित की नज़रों के बीच
सिमटती जा रही थी।
अब मैं सिर्फ सिया नहीं थी—
सिया, रोहित की “मर्ज़ी के हिसाब” वाली लड़की बन चुकी थी।
एक दिन उसने कहा—
“सिया…
तुम मुझे बहुत पसंद हो,
तुम बहुत Beautiful हो,
लेकिन तुम समझ नहीं रही—
तुम्हें मेरी ज़रूरत है।”
मैंने डरते हुए पूछा—
“और आपको?”
उसने बिना सोचे कहा—
“मुझे तुम्हारी नहीं…
तुम्हारी मौजूदगी की आदत है।”
आदत…
यह शब्द मेरे दिल पर जैसे चाकू बनकर चढ़ गया।
उस रात
मैंने पहली बार महसूस किया
कि वह मुझसे प्यार नहीं करता…
वह मुझे कब्ज़े में रखना चाहता है।
मगर मैं?
मैं उससे दूर जाने का सोच भी नहीं पा रही थी।
क्योंकि उसके बिना
मेरी दुनिया खाली हो जाती थी।
और शायद
इसी खालीपन का फायदा
वह उठा रहा था।
मुझे बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था
कि यह तो बस शुरुआत थी—
अभी उसका असली चेहरा
सबसे खतरनाक रूप में सामने आना बाकी था।
रोहित धीरे-धीरे मेरे लिए हवा जैसा हो गया था—
अगर वह पास होता, तो मैं शांत।
अगर वह दूर रहता, तो मैं टूटने लगती।
मुझे ऐसा लगने लगा कि
उसके बिना मैं अधूरी हूँ।
और शायद इसी एहसास ने
उसे मेरे ऊपर पूरा अधिकार दे दिया।
एक शाम उसने मुझसे कहा—
“सिया… मैं तुम्हें बहुत गंभीरता से लेता हूँ।
तुम मेरी जिंदगी में बहुत महत्त्वपूर्ण हो।”
मैं यह सुनकर मुस्कुराई,
और उसी पल उसने जोड़ा—
“लेकिन…
तुम मुझसे उतना प्यार नहीं करती।
क्योंकि अगर करती,
तो मेरी हर बात मानती।”
मैं चौंकी।
“मैं… नहीं मानती?”
वह मेरी तरफ थोड़ा झुका।
आवाज़ नरम, लेकिन इरादा ठंडा।
“हाँ।
अगर तुम मुझसे प्यार करती होती,
तो तुम मेरे बिना एक पल भी नहीं रहती।
तुम मेरे लिए अपने समय, अपने दोस्त,
अपनी दुनिया…
सब छोड़ देती।”
मेरे दिल पर ये बात हथौड़े की तरह गिरी।
क्या सच में?
क्या प्यार ऐसा ही होना चाहिए?
क्या जो इंसान हमारी परवाह करता है,
वह हमें बाकी सब छोड़ने को कहता है?
पर उस वक्त
मेरा दिमाग नहीं,
दिल चल रहा था।
मैंने धीरे से कहा—
“ठीक है… मैं कोशिश करूँगी।”
वह मुस्कुराया।
लेकिन वह प्यार की मुस्कान नहीं थी।
वह जीत की मुस्कान थी।
अगले कुछ हफ्तों में
मेरी जिंदगी उसके हिसाब से चलने लगी।
अगर मैं देर से मैसेज करती,
वह कहता—
“लगता है तुम मुझे चाहती ही नहीं हो।”
अगर मैं दोस्त से बात कर लेती,
वह कहता—
“जब मैं सब कुछ छोड़ रहा हूँ तुम्हारे लिए,
तो क्या तुम एक दोस्त भी नहीं छोड़ सकती?”
अगर मैं क्लास से देर से आती,
वह पूछता—
“किसके साथ थी?”
अगर मैं थकी होती और मिलना नहीं चाहती,
वह कहता—
“ठीक है… मज़े करो।
मैं तो बस तन्हा आदमी हूँ।
आदत डाल लूँगा बिना तुम्हारे।”
ये सब बातें
दिल पर भारी पड़तीं।
मैं खुद को दोष देने लगती।
धीरे-धीरे
मेरी हँसी कम हो गई,
दोस्त दूर हो गए,
फैमिली से बातें कम हो गईं।
मैं पूरी तरह
उसकी पकड़ में आ गई थी।
मेरी दुनिया
एक 40 साल के आदमी की मरज़ी पर सिमट गई थी।
और सबसे खतरनाक पल तब आया
जब उसने पहली बार
स्पष्ट रूप से अपना इरादा दिखाया।
वह बोला—
“सिया…
तुम जानती हो, मैं तुम्हारा ख्याल क्यों रखता हूँ?
क्योंकि तुम मेरी हो।
लेकिन प्यार में सिर्फ बातें नहीं होतीं…
ज़िम्मेदारियाँ होती हैं,
क़ुरबानियाँ होती हैं।
तुम्हें भी कुछ देना होगा… मेरी feelings के बदले।”
मेरा दिल धड़कना बंद हो गया।
मैंने धीरे से कहा—
“देना?
क्या?”
वह कुछ सेकंड मुझे देखता रहा।
फिर बोला—
“तुम समझदार हो।
मैं सब ज़ुबान से कहूँगा नहीं।
लेकिन अगर तुम मुझे सच में चाहती हो…
तो तुम्हें मेरे साथ उसी तरह खड़े होना चाहिए
जैसे मैं तुम्हारे साथ खड़ा हूँ।”
मेरी रीढ़ में एक ठंडा डर दौड़ गया।
उसके चेहरे पर नरमी थी…
लेकिन आँखों में आदेश।
पहली बार
मैंने महसूस किया
कि उसका प्यार नहीं,
उसका हक़ बोल रहा है।
वह मुझे आगे झुकते हुए धीरे से बोला—
“सिया…
प्यार सिर्फ लेने का नाम नहीं,
देने का भी होता है।
मुझे भी तुम्हारी ज़रूरत है।”
मेरी आँखें भर आईं।
उसने मेरी ठुड्डी उठाई,
हथेली से आँसू पोछे,
और मुस्कुराते हुए कहा—
“रोओ मत…
मैं हूँ ना।
हमेशा।”
सच तो यह था—
वह “हमेशा” मेरे लिए नहीं,
अपने लिए चाहता था।
मैं डर गई थी।
पर उससे दूर जाने में
और भी ज़्यादा डर रहा था।
मेरी दुनिया
उसके पिंजरे में बंद हो चुकी थी।
और मुझे नहीं पता था
कि जल्द ही
वह पिंजरा
एक ऐसा धोखा बनकर टूटेगा
जिससे मेरा दिल…
और मेरी आत्मा दोनों घायल हो जाएँगे।
रोहित पिछले कुछ हफ्तों से मुझे एक अलग तरह से ट्रीट कर रहा था।
कभी बहुत प्यार से,
तो कभी पूरा दिन गायब।
कभी अचानक बहुत रोमांटिक बातें,
तो कभी एकदम ठंडा।
मैं उसकी हर mood swing को
अपनी गलती मानने लगी थी।
अगर वो खुश —
तो मैं ठीक इंसान।
अगर वो नाराज़ —
तो मैं ग़लत इंसान।
मैंने अपनी पूरी दुनिया उसी के इर्द-गिर्द बना ली थी।
एक शाम उसने मुझे कॉल किया—
“सिया, आज मिलो।
ज़रूरी है।”
उसकी आवाज़ कुछ बदली हुई थी।
जैसे वह किसी दबाव में हो।
मैं डर गई।
सोचा शायद मैंने कुछ गलत कर दिया।
मैं कॉलेज के बगल वाली सड़क पर पहुँची।
गाड़ी खड़ी थी।
रोहित बाहर था…
पर उसके चेहरे पर वह नरम मुस्कान नहीं थी
जो मुझे हमेशा खींच लेती थी।
आँखें तेज़ थीं,
चेहरा खिंचा हुआ
और आवाज़ अजीब रूप से दूर।
“सिया, बैठो। बात करनी है।”
मैं बैठ गई…
दिल धड़क रहा था।
रोहित ने गाड़ी स्टार्ट नहीं की।
बस सीट पर पीछे टिककर बोला—
“तुम समझदार लड़की हो।
अब तुम्हें real-world समझना चाहिए।”
मैं चौंक गई।
ये कैसा tone था?
उसने जारी रखा—
“मैंने तुम्हें बहुत सपोर्ट दिया।
समय दिया।
भावनाएँ दीं।
तुम्हें सबकुछ दिया…
अब मेरी भी कुछ जरूरतें हैं।”
मेरी उंगलियाँ ठंडी पड़ गईं।
मैंने पूछने की कोशिश की—
“क… कैसी ज़रूरतें?”
वह हँसा।
वह हँसी…
प्यार की नहीं थी,
एक चालबाज इंसान की थी
जो अपने शिकार को कमजोर देखकर आनंद लेता है।
“सिया, मैं सीधा आदमी हूँ।
मैं किसी लड़की पर टाइम तभी invest करता हूँ
जब मुझे यकीन हो कि वो मुझे बदले में कुछ देगी।”
मेरी सांस रुक गई।
“देगी?
मतलब… क्या?”
उसने मुझे तिरछी नज़र से देखा—
“तुम खुद समझदार हो।
ज़ुबान से सब बोलना पड़ेगा क्या?”
मेरे सीने में तेज़ दर्द उठा।
मेरे हाथ कांपने लगे।
मैंने डरते हुए कहा—
“रोहित… क्या तुम्हारा प्यार… सच नहीं था?”
वह गुस्से से बोला—
“प्यार?
प्यार क्या होता है, सिया?
ये दुनिया give-and-take पर चलती है।
तुमने लिया… अब तुम्हारी बारी है देने की।”
मेरी आँखें नम हो गईं।
मैंने पहली बार उसकी आँखों में साफ देखा—
वहाँ मेरे लिए कोई प्यार नहीं था।
बस
लालच।
ज़रूरत।
और एक असुरक्षित आदमी की सस्ती जीत का अहंकार।
मैंने फुसफुसाया—
“मैंने तुम पर भरोसा किया था…”
वह आगे झुका और बोला—
“तो गलती तुमने की।
मैंने थोड़ी ना कहा था भरोसा करो।
तुम खुद मेरे पीछे आई।
तुम खुद मुझसे जुड़ी।
अब blame मत करना मुझे।”
अंदर कुछ चटक गया।
मेरी आँखें तेजी से भरने लगीं।
मैंने हिम्मत करके कहा—
“मैंने सोचा था तुम मुझे सच में पसंद करते हो…
मैंने सोचा था कि तुम मेरी फिक्र करते हो…”
उसने ठंडी हँसी हँसी—
“फिक्र?
सिया… तुम छोटी हो।
तुम नहीं समझोगी।
मैंने बस तुम्हें थोड़ा attention दिया था,
थोड़ा प्यार जैसा behave किया था…
और तुम बहक गई।”
उसकी हर बात
मेरे अंदर के भरोसे को काटती जा रही थी।
“और सुनो,”
वह आगे बोला,
“तुम अकेली नहीं हो।
ऐसी 2–3 लड़कियाँ हैं मेरी life में।
तुम कोई खास नहीं हो।
मैं बस तुम्हें इसलिए चुनता हूँ
क्योंकि तुम emotional हो…
और emotional लड़कियाँ बहुत आसानी से control होती हैं।”
मेरे अंदर का खून जम गया।
मैंने उससे कुछ बोलने की कोशिश की—
“तुमने… मुझे धोखा दिया, रोहित।”
उसका चेहरा कठोर हो गया—
“Drama मत करो, सिया।
तुम्हारे जैसे girls मेरे पास रोज़ आती हैं।
अगर तुम्हें मेरा साथ चाहिए
तो मेरी शर्तें मानो…
नहीं चाहिए…
तो रास्ता नापो।”
मेरे हाथ काँप रहे थे।
मेरी आँखों से आँसू अपने आप बहने लगे।
मैंने गाड़ी का दरवाज़ा खोलने की कोशिश की।
रोहित ने मेरा हाथ पकड़ा—
पहली बार
उस स्पर्श में प्यार नहीं था…
काबू था।
मैं चीखी नहीं।
बस धीरे से कहा—
“मुझे जाने दो।”
वह कुछ सेकंड मुझे घूरता रहा,
फिर हाथ छोड़ दिया।
मैं बाहर निकली और तेज़ कदमों से दूर चलने लगी।
पीछे मुड़कर नहीं देखा।
क्योंकि देखती…
तो शायद मैं वहीं गिरकर टूट जाती।
उस दिन
मैं पहली बार
समझ पाई—
रोहित ने मेरा दिल नहीं तोड़ा था…
मेरी पहचान,
मेरी मासूमियत,
मेरी खुद की कीमत
सब चकनाचूर कर दी थी।
और मुझे पहली बार खुद से घिन आई।
अपने भरोसे पर,
अपनी मासूमियत पर,
अपनी आँखें बंद करके विश्वास कर लेने की आदत पर।
लेकिन मुझे पता नहीं था—
यह टूटना
मेरे अंदर एक नई आग भी जगा रहा था।
उस शाम जब मैं रोहित की गाड़ी से बाहर निकली,
मुझे अपने पैरों पर भरोसा नहीं था।
ऐसा लग रहा था जैसे सड़क पर चलते-चलते
मेरे घुटने किसी भी पल जवाब दे देंगे।
मेरा बदन काँप रहा था,
गला सूख गया था,
और दिल…
ऐसे धड़क रहा था
जैसे शरीर की हदें तोड़कर बाहर आ जाएगा।
मैंने खुद को बहुत संभालकर हॉस्टल तक पहुँचाया।
कमरे में दाख़िल होते ही
दरवाज़ा बंद किया
और सीधे फर्श पर बैठ गई।
मैंने किसी एक कोने में सिर टिकाया
और रोना शुरू कर दिया—
बिना आवाज़ के,
बिना किसी को सुनाए,
बस अपने अंदर मरते हुए।
मेरी आँखों से आँसू थम ही नहीं रहे थे।
मुझे खुद से घिन आ रही थी,
अपनी समझ से,
अपनी आँखों से,
अपने भरोसे से।
मैं बार-बार खुद को बोल रही थी—
“तू बेवकूफ है सिया…
तूने क्यों भरोसा किया?
क्यों उस आदमी को अपने मन में जगह दी?”
मेरे गाल पर आँसू सूखते,
फिर नए गिरते।
जैसे मेरा दिल खुद को साफ़ करने की कोशिश कर रहा हो…
पर साफ़ होता ही नहीं था।
उस रात मैं बिस्तर पर नहीं गई।
बस कमरे की ठंडी फर्श पर बैठकर
झुककर हाथों में चेहरा छुपाए रोती रही।
रात के 2 बजे
एक पल ऐसा आया जब
मेरी साँसें अटकने लगीं।
जैसे कोई भारी चीज़ छाती पर रख दी हो।
मेरी उंगलियाँ ठंडी हो रही थीं।
दिल तेज़ धड़क रहा था।
और मैं डर रही थी।
बहुत डर रही थी।
मैंने खुद को गले लगाकर कहा—
“मैं बच जाऊँगी…
मैं बस दुखी हूँ,
मर नहीं रही…
ये बस एक दर्द है।”
पर सच ये था—
ये सिर्फ दर्द नहीं था।
ये टूटना था।
अगली सुबह जब मैं उठी,
कमरे की दीवारें मुझे अजनबी लग रही थीं।
आईने में अपना चेहरा देखा—
आँखें सूजी हुई,
बाल बिखरे हुए,
होंठ सूखे।
मैं खुद को पहचान ही नहीं पा रही थी।
हॉस्टल से बाहर निकली
तो सड़क पर चलते पुरुषों की नज़रें
मुझे काँपाने लगीं।
जो पहले सामान्य लगता था,
अब डर बन गया था।
क्लास में बैठी
तो लड़के-लड़कियों की हँसी भी चुभने लगी—
“क्या वे भी मेरा मज़ाक बना सकते हैं?”
“क्या उन्हें भी पता चल जाएगा कि मैं मूर्ख हूँ?”
“क्या मैं इतनी कमज़ोर हूँ?”
मेरी आँखें बार-बार भर आतीं।
मैं दोस्तों के बीच बैठकर भी
एकदम अकेली महसूस करती थी।
किसी ने पूछा—
“क्या हुआ, सिया?”
मैंने बस एक झूठ बोला—
“बस नींद नहीं हुई।”
नींद?
मैंने तो रात भर अपना नर्क देखा था।
शाम को हॉस्टल लौटी
और रोहित के मैसेजों पर नज़र पड़ी।
उसने लिख रखा था—
“सोच लो…
मेरे जैसा कोई नहीं मिलेगा।”
मेरे अंदर गुस्से की एक लहर उठी,
लेकिन उसी के साथ डर भी—
“अगर वो मुझे फिर से संपर्क करे?”
“अगर किसी तरह मेरे घर कॉल कर दे?”
“अगर मेरे कॉलेज आए?”
“अगर बदनाम कर दे?”
मेरे हाथ काँपने लगे।
मैंने नंबर ब्लॉक कर दिया।
लेकिन डर वही रहा।
रात के 12 बजे
फिर वही बेचैनी,
वही भारी साँसें,
वही हाथों का काँपना,
वही डर…
जैसे कोई मुझे कोने में धकेलकर कह रहा हो—
“सिया… तुम अकेली हो।
तुम्हारा कोई नहीं।
और तुम खुद को भी माफ नहीं कर सकती।”
मैं रातभर जागती रही।
कभी छत को देखती,
कभी अपनी हथेलियों को—
मुझे लग रहा था
मेरी त्वचा भी जैसे रोहित के झूठ से गंदी हो गई है।
मैं बार-बार हाथ धोती,
चेहरा धोती,
लेकिन अंदर की गंदगी
नहीं धुलती थी।
हर रात
मैं खुद से एक ही सवाल पूछती—
“अगर मैं किसी अच्छे इंसान से शादी करूँ…
तो क्या मैं खुद को माफ कर पाऊँगी?”
और जवाब हमेशा एक ही होता—
नहीं।
अभी नहीं।
इस दर्द के साथ… नहीं।
पर अंदर कहीं
एक छोटी-सी आवाज़ फिर उठती—
“सिया…
तुम टूट चुकी हो,
लेकिन खत्म नहीं हुई हो।
एक दिन तुम हिम्मत पाओगी।”
मैं उस आवाज़ को पकड़कर सोने की कोशिश करती…
लेकिन आजकल
नींद भी मुझसे दूर भागती थी।
मैं रोहित के धोखे से ज्यादा
खुद को खो देने से लड़ रही थी।
और यह लड़ाई
सबसे कठिन थी।















