मेरा नाम विवेक है। और मेरी कहानी किसी बड़े नाटकीय मोड़ की नहीं है, बल्कि उस रोज़मर्रा की सच्चाई की है जो मेरे दिल को धीरे-धीरे खा गई। यह कहानी नेहा की है, और उस दो किलोमीटर लंबे रास्ते की, जिसे मैंने अपने प्यार का मंदिर मान लिया था।
नेहा और मैं एक ही कॉर्पोरेट ऑफ़िस में काम करते थे। हमारा घर भी एक ही दिशा में था। इसलिए, रोज़ शाम को दफ़्तर ख़त्म होने के बाद, हम साथ में बस स्टॉप तक चलते थे। यह क़रीब बीस मिनट का सफ़र होता था, लेकिन मेरे लिए, वह बीस मिनट मेरी पूरी दुनिया थे।
नेहा बहुत बातूनी, ख़ुशमिज़ाज और बेफ़िक्र थी। वह मुझसे अपने दफ़्तर के हर छोटे-मोटे झगड़े, दोस्तों की बातें, और वीकेंड के प्लान साझा करती थी। मैं चुपचाप सुनता था, और उसकी बातों में ही मेरा सारा सुख छिपा होता था। उसकी हँसी, मेरे दिन की सबसे प्यारी धुन थी।
मुझे याद भी नहीं कि मैंने उसे कब प्यार करना शुरू कर दिया। शायद तब, जब एक बार बारिश में हम छाते के नीचे चल रहे थे और उसके गीले बाल मेरे कंधे को छू रहे थे। या शायद तब, जब उसने किसी परेशानी में मुझसे सलाह माँगी और कहा, “विवेक, तुम मेरे सबसे अच्छे दोस्त हो।”
मेरे लिए, यह रोज़ का साथ, यह एक ही रास्ते पर चलना, एक अनकहा वादा था। मैं आश्वस्त था कि हमारी यह नज़दीकी, यह कम्फर्ट, सिर्फ़ दोस्ती नहीं हो सकता। यह ज़रूर प्यार है, जिसे वह शायद अभी तक पहचान नहीं पाई है।
मैंने अपने पूरे भविष्य की कल्पना इस रास्ते के अंत में की थी—कि एक दिन, यहीं कहीं, मैं उसे बताऊँगा कि मैं उससे कितना प्यार करता हूँ। मेरे लिए, वह दो किलोमीटर का रास्ता ही मेरी मंज़िल बन चुका था, और मैं यक़ीन करता था कि हमारी मंज़िलें अंततः एक ही थीं।
मैंने अपने जीवन के सारे लक्ष्य अब इस तरह से तय किए थे कि वे नेहा के साथ हों। मुझे लगता था कि हम दोनों, रोज़ एक ही रास्ते पर चलते हुए, अनजाने में ही अपनी ज़िंदगी की सबसे बड़ी मंज़िल की ओर बढ़ रहे हैं।
लेकिन, मैं नहीं जानता था कि वह मेरे लिए सिर्फ़ एक आरामदायक ‘सफ़र का साथी’ था, और जिस रास्ते को मैं प्यार का पुल मान रहा था, वह उसके लिए महज़ घर जाने का एक आसान रास्ता था।
मैं अपने एकतरफ़ा प्यार के भ्रम में ख़ुश था, रोज़ उसी रास्ते पर चलने और उसकी बातें सुनने का इंतज़ार करता था। मुझे लगता था कि मेरी यह ख़ामोश वफ़ादारी, एक दिन ज़रूर रंग लाएगी।
फिर वह शाम आई, जिसने मेरी पूरी दुनिया को एक झटके में हिला दिया।
हम दफ़्तर से निकले और उसी रास्ते पर चलना शुरू किया। नेहा आज बहुत ख़ुश थी, उसकी आँखें चमक रही थीं और उसकी मुस्कान आज पहले से ज़्यादा ज़ोरदार थी।
“विवेक! तुम्हें पता है? आज मेरे जीवन का सबसे अच्छा दिन है!” उसने ख़ुशी से मेरे हाथ पर टैप करते हुए कहा।
मेरा दिल ख़ुशी से धड़का। मुझे लगा कि आख़िरकार, वह मुझसे कुछ ख़ास कहने वाली है—शायद वह भी अपनी भावनाओं को पहचान गई है।
मैंने मुस्कुराते हुए पूछा, “अरे वाह! ऐसा क्या हो गया? जल्दी बताओ!”
नेहा ने एक गहरी साँस ली, और उसकी आवाज़ में एक ऐसी आत्मीयता थी, जो मेरे लिए नहीं थी।
“मेरे बचपन के दोस्त, राहुल, ने मुझे प्रपोज़ कर दिया! और मैंने ‘हाँ’ कह दिया। हम अगले साल शादी कर रहे हैं! सोचो, हम बचपन से साथ हैं, और अब हमने फ़ैसला किया है कि हम हमेशा साथ रहेंगे।”
यह सुनकर, मेरे पैर ज़मीन पर ही जम गए। मेरे आसपास की दुनिया, ट्रैफ़िक का शोर, लोगों की आवाज़ें—सब कुछ अचानक थम गया। मुझे लगा कि मैं एक भयानक, धीमी गति वाले सपने में हूँ।
मैंने उस रास्ते पर चलना जारी रखा, लेकिन मेरे अंदर सब कुछ टूट गया था।
नेहा अपनी ख़ुशी में इतनी खोई हुई थी कि उसने मेरे चेहरे का रंग उड़ना, या मेरी हाथों की मुट्ठी का भींचना नोटिस ही नहीं किया। वह राहुल की तारीफ़ करती रही—कि वह कितना अच्छा है, वे दोनों कितने मिलते हैं, और उनकी शादी का वेन्यू कहाँ होगा।
मुझे एहसास हुआ कि जिस रास्ते को मैं प्यार का पवित्र पुल मान रहा था, वह नेहा के लिए बस एक समय बिताने का माध्यम था। जिस दिल की बातें वह मुझे बताती थी, वह दिल किसी और के लिए धड़कता था।
मैंने उस रास्ते पर चलना जारी रखा, और मेरे होंठों से निकले शब्द मेरे दिल को और ज़्यादा दर्द दे रहे थे: “वाह नेहा! यह तो बहुत अच्छी ख़बर है… मैं बहुत ख़ुश हूँ तुम्हारे लिए।”
मैं उसे सांत्वना दे रहा था, उसे बधाई दे रहा था, जबकि मेरा अपना दिल दर्द से चीख़ रहा था।
जब हमारा रोज़ का दो किलोमीटर का रास्ता ख़त्म हुआ, और हम वहाँ पहुँचे जहाँ से हमारे रास्ते अलग होते थे, तो नेहा ने पलटकर मुझे ज़ोर से गले लगाया।
“विवेक, थैंक यू सो मच! तुम हमेशा मेरे साथ रहे हो। तुम मेरे सबसे अच्छे दोस्त हो, और तुम्हें मेरी शादी में ज़रूर आना है!”
उसने मुझे यह ‘दोस्त’ कहकर, मेरे एकतरफ़ा प्यार की सारी बची-खुची उम्मीदों को हमेशा के लिए दफ़न कर दिया। मुझे एहसास हुआ कि हम रोज़ एक ही रास्ते पर चलते थे—पर उसकी मंज़िल में मैं कभी था ही नहीं। मैं सिर्फ़ एक साथी था, जो उसे उसकी सच्ची मंज़िल तक पहुँचाने में मदद कर रहा था।
नेहा के उस दिन गले लगाने और ‘दोस्त’ कहने के बाद, मेरी दुनिया ने अपनी दिशा हमेशा के लिए बदल ली थी। मेरी मंज़िल टूट चुकी थी।
अगले कुछ हफ़्तों तक, मैंने दफ़्तर से जल्दी निकलना या देर से निकलना शुरू कर दिया, बस इसलिए कि मुझे उस दो किलोमीटर के रास्ते पर अकेला चलना पड़े। मैं उससे बात करने से डरता था, क्योंकि अब उसकी हर बात में राहुल का ज़िक्र होता था।
लेकिन कुछ दिनों बाद, मैंने ख़ुद से कहा: “कब तक भागोगे, विवेक? सच को स्वीकार करो।”
और मैंने फिर से रोज़ उसी रास्ते पर, उसी समय चलना शुरू कर दिया।
अब नेहा अपनी शादी की तैयारियों, हनीमून की प्लानिंग और राहुल के परिवार के बारे में बताती थी। मैं उसे सुनता था, और अब मेरे दिल में कोई उम्मीद नहीं होती थी। मेरा दिल अब असहनीय शांति से भर चुका था।
मैंने सीख लिया था कि प्यार का मतलब सिर्फ़ ‘पाना’ नहीं होता, बल्कि उस व्यक्ति को ख़ुश देखना भी होता है, भले ही उसकी ख़ुशी का कारण कोई और हो। यह मेरे एकतरफ़ा प्यार की सबसे बड़ी सच्चाई थी।
मैं आज भी रोज़ उसी रास्ते पर चलता हूँ।
जब हम दोनों साथ होते हैं, तो हम पहले की तरह बातें करते हैं, हँसते हैं। लेकिन अब मैं जानता हूँ कि हमारी हँसी और हमारी बातचीत सिर्फ़ एक दोस्ती का सफ़र है, जिसके आगे मेरी कोई मंज़िल नहीं है।
जब हमारा रोज़ का रास्ता ख़त्म होता है और हमारे रास्ते अलग होते हैं, तो मैं उसे मुस्कुराकर ‘बाय’ कहता हूँ। और फिर मैं अकेला अपनी बस स्टॉप की तरफ़ बढ़ता हूँ।
मैं जानता हूँ कि:
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हम रोज़ एक ही रास्ते पर चलते थे…
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पर उसकी मंज़िल राहुल था, और मैं उसके रास्ते का एक साथी।
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मैं मंज़िल तक पहुँच गया हूँ—वह मंज़िल है अकेले जीने की स्वीकार्यता।
और यही वह दर्द है जिसके साथ मैं अब रोज़ चलता हूँ—यह जानते हुए कि मैंने अपने जीवन का सबसे ख़ूबसूरत सफ़र तय किया, लेकिन जिस मंज़िल की मैंने कल्पना की थी, वहाँ मेरी जगह कभी थी ही नहीं।















