मेरा नाम आराध्या है, और मैं 24 साल की हूँ। जब मैं अतीत की तरफ़ देखती हूँ, तो मुझे लगता है कि मैंने अपना सारा जीवन सिर्फ़ एक ही व्यक्ति के चारों ओर बुना था—अभिषेक।
हमारा प्यार फ़िल्मी नहीं था, न ही वह अचानक हुई मुलाक़ातों का नतीजा था। यह बचपन की दोस्ती से पनपा था, धीरे-धीरे परिपक्व हुआ और मेरे लिए एक ऐसा अटूट सत्य बन गया जिस पर मुझे संदेह करने की कोई ज़रूरत ही नहीं थी। अभिषेक मेरे घर, मेरी ख़ुशी, और मेरी हर योजना का आधार स्तंभ था।
हम एक-दूसरे के बिना किसी भी चीज़ की कल्पना नहीं कर सकते थे। वह मेरे लिए महज़ एक बॉयफ्रेंड नहीं था; वह मेरा सबसे अच्छा दोस्त, मेरा मार्गदर्शक और मेरी रूह का दूसरा हिस्सा था।
मुझे याद है, जब मुझे कॉलेज में दाखिला नहीं मिल रहा था और मैं पूरी तरह टूट चुकी थी, तो अभिषेक ने पूरी रात मेरे साथ जागकर मुझे समझाया था। उसने कहा था, “आराध्या, तुम हार नहीं मान सकती। मैं तुम्हारे साथ हूँ। हम मिलकर रास्ता निकालेंगे।” उसने मेरे माथे पर चूमा था, और उस पल मुझे लगा था कि अगर मेरे पास अभिषेक है, तो मैं दुनिया की हर जंग जीत सकती हूँ।
हमारा भविष्य एक साफ़-सुथरे नक़्शे जैसा था। हम दोनों ने मिलकर तय किया था कि हम एक छोटे शहर में रहेंगे, एक छोटी सी लाइब्रेरी खोलेंगे, और हर शाम साथ में कॉफ़ी पीते हुए अपने दिन की बातें करेंगे। मैंने अपनी महत्वाकांक्षाएँ, अपने सपने—सब कुछ उसके सपनों के रंग में रंग दिया था। मेरे लिए यह बलिदान नहीं था, यह सहजीवन था।
मैंने अपना आत्मविश्वास, अपना अस्तित्व, अपना वजूद—सब कुछ उस रिश्ते में डाल दिया था। मैं सचमुच मानती थी कि हम दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं, और हमारा बंधन समय या दूरी से नहीं टूट सकता।
मैं पूरी तरह से आश्वस्त थी कि मेरे दिल की धड़कन और अभिषेक की साँसें, एक ही ताल पर चलती हैं। मैं उसकी तरफ़ देखती थी और सोचती थी कि यह शख़्स भगवान का दिया हुआ सबसे ख़ूबसूरत तोहफ़ा है, और मैं ज़िंदगी भर उसकी देखभाल करूँगी।
मुझे यह बिल्कुल पता नहीं था कि जिस व्यक्ति को मैंने अपनी पूरी दुनिया मान लिया था, वह एक दिन मेरी दुनिया के सारे नक्शे और सारे नियम बदल देगा, और मुझे इस बात की भनक तक नहीं होगी। मेरा विश्वास, मेरी अटूट श्रद्धा, जल्द ही मेरी सबसे बड़ी कमज़ोरी और मेरे दिल के टूटने का सबसे बड़ा कारण बनने वाली थी।
अभिषेक के दूसरे शहर चले जाने के बाद, हमारे रिश्ते में भौगोलिक दूरी तो आई, लेकिन शुरुआत में मुझे लगा कि भावनात्मक दूरी नहीं आएगी। मैं उसे हर रोज़ फ़ोन करती, उसे उसके काम के लिए प्रेरित करती, और हर छोटी बात बताती।
पहले कुछ महीनों तक सब ठीक रहा। लेकिन धीरे-धीरे, अभिषेक की आवाज़ की गर्मजोशी कम होने लगी।
जब मैं उसे शाम को फ़ोन करती, तो वह हमेशा कहता, “बस पाँच मिनट में कॉल करता हूँ,” और वह कॉल अक्सर देर रात आता, या कभी-कभी आता ही नहीं था। उसके मैसेज छोटे और बेजान होते थे।
जब मैं उससे पूछती, “क्या तुम उदास हो?” तो वह नाराज़ हो जाता था। “नहीं, आराध्या! मैं बस व्यस्त हूँ। तुम हमेशा इतना क्यों सोचती हो? तुम्हें मुझ पर भरोसा नहीं है क्या?”
उसका यह पलटवार मुझे शांत कर देता था। मैं ख़ुद को समझाती कि यह सब काम के दबाव के कारण है। मैंने ख़ुद को ‘समझदार’ और ‘सपोर्टिव’ गर्लफ्रेंड बनने के लिए मजबूर किया, अपनी चिंताओं को दबाकर।
लेकिन मेरा दिल, जिसने उसे अपनी दुनिया माना था, हर पल मुझे चेतावनी दे रहा था। मुझे साफ़ महसूस होता था कि हमारे बीच की भावनात्मक दूरी, हज़ारों मीलों की भौतिक दूरी से कहीं ज़्यादा बड़ी हो चुकी है। अब मैं उसकी प्राथमिकता नहीं, बल्कि उसकी आदत बन चुकी थी, जिसे वह धीरे-धीरे छोड़ रहा था।
एक रात, मैं बेचैन थी। मैंने उसे वीडियो कॉल किया। कॉल डिस्कनेक्ट हो गया। उसने तुरंत मैसेज किया: “मीटिंग में हूँ, बहुत ज़रूरी है। बाद में बात करता हूँ।”
मुझे लगा कि वह झूठ बोल रहा है। मेरे अंदर का सारा आत्मविश्वास, सारा भरोसा, उस पल टूट गया। उसी क्षण मैंने तय किया—मुझे जाना होगा। मुझे अपनी आँखों से देखना होगा कि क्या मेरी दुनिया अभी भी सलामत है।
अगली सुबह, बिना किसी को बताए, मैंने ट्रेन पकड़ी और उसके शहर पहुँच गई। मेरे दिल की धड़कन इतनी तेज़ थी कि मुझे लगा कि वह मेरे सीने को फाड़ देगी। मैं ख़ुद को समझाती रही कि सब कुछ ठीक होगा; वह बस व्यस्त होगा, और मुझे देखकर वह कितना ख़ुश होगा।
मैं उसके अपार्टमेंट के दरवाज़े पर पहुँची। मेरा हाथ काँप रहा था। मैंने दरवाज़ा खटखटाया।
कुछ ही सेकंड में, दरवाज़ा खुला। सामने अभिषेक था।
उसे देखकर मेरे चेहरे पर जो ख़ुशी आई थी, वह तुरंत मुरझा गई। उसकी आँखों में मुझे देखकर कोई ख़ुशी नहीं थी—सिर्फ़ अपराधबोध और डर था।
और तभी, मेरी निगाहें उसके पीछे पड़ीं। वहाँ एक लड़की खड़ी थी, जिसने अभी-अभी शॉवर लिया था और जिसने अभिषेक की शर्ट पहनी हुई थी। वह बहुत प्यारी थी, शायद हमउम्र।
मैंने उस लड़की की आँखों में देखा। मुझे उसकी आँखों में अभिषेक के लिए वही सहज आत्मीयता दिखी, जो कभी सिर्फ़ मेरे लिए थी।
मेरा शरीर जम गया। मेरी ज़ुबान से एक शब्द भी नहीं निकला। मैं बस उस दरवाज़े पर खड़ी रही, उस दृश्य को अपनी आत्मा में उतारती रही। मेरी दुनिया का वजूद, मेरे सामने, किसी और के साथ खड़ा था।
तभी, उस लड़की ने अनजाने में मुस्कुराते हुए अभिषेक का हाथ थाम लिया और पूछा, “अभिषेक, यह कौन है?”
जब उस लड़की ने अभिषेक का हाथ थामकर पूछा, “अभिषेक, यह कौन है?”—तो उस एक सवाल ने मेरे पूरे वजूद को हिला दिया। मेरी आँखें, जो अब तक आँसुओं को रोके हुए थीं, अभिषेक के जवाब पर टिकी थीं। मैं बस एक आख़िरी सच सुनना चाहती थी।
अभिषेक ने मेरी तरफ़ एक बार भी नहीं देखा। उसकी नज़रें ज़मीन पर गड़ी थीं। उसने बहुत धीमी, लगभग फुसफुसाहट वाली आवाज़ में, जिससे मैं भी मुश्किल से सुन पाई, कहा:
“यह… यह मेरी एक पुरानी दोस्त है, नेहा।”
‘पुरानी दोस्त!’
उस पल, मेरे दिल के अंदर की हर चीज़ मर गई। वह दर्द इतना तेज़ था कि मैं चीख़ सकती थी, चिल्ला सकती थी, पर मेरे मुँह से कोई आवाज़ नहीं निकली। उसने मेरे चार साल के प्यार, मेरे अटूट विश्वास, मेरे बुने हुए भविष्य को बस दो शब्दों में समेट दिया—पुरानी दोस्त।
वह लड़की—नेहा—मुस्कुराई और मुझसे हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़ी। मैं हिल भी नहीं पाई।
मेरा सारा ग़ुस्सा, मेरी सारी नफ़रत, उस मासूम लड़की पर नहीं, बल्कि उस शख़्स पर थी, जिसे मैंने अपनी जान से ज़्यादा चाहा था।
मैंने अभिषेक की आँखों में देखा, और अब मेरे चेहरे पर कोई आँसू नहीं थे, बस एक भयानक, खालीपन भरी शांति थी।
“अभिषेक,” मैंने बहुत ही धीमी, नियंत्रित आवाज़ में कहा, जो टूटने के किनारे पर थी, “तुम्हें याद है? तुमने कहा था कि मैं तुम्हारी दुनिया हूँ। तुमने कहा था कि तुम मेरे बिना अधूरे हो।”
उसने अपना सिर उठाया और उसकी आँखों में अब पश्चाताप नहीं, बल्कि झुंझलाहट थी, क्योंकि मैं वहाँ खड़ी होकर ‘सीन’ क्रिएट कर रही थी।
मैंने उस लड़की की तरफ़ देखा। मैंने कहा, “नेहा, मुझे माफ़ करना। मैं बस तुम्हें यह बताना चाहती थी… जिस शख़्स का हाथ तुमने अभी थाम रखा है, चार साल पहले, मैंने उसे अपना पूरा जीवन सौंपा था।”
फिर मैंने अभिषेक को देखा। मेरा दिल फट चुका था, पर मेरी ज़ुबान नहीं।
मैंने कहा: “तुम्हें दुनिया बदलने की आज़ादी है, अभिषेक। पर याद रखना, जिस इमारत को तुमने गिराया है, उसे मैंने अपनी रूह के पत्थरों से बनाया था।”
मैंने बिना किसी और इंतज़ार के, बिना उसकी माफ़ी सुने, बिना उसे कोई और शब्द कहने का मौक़ा दिए, पीछे मुड़ी और चल दी। मैंने एक बार भी पलटकर नहीं देखा। मुझे डर था कि अगर मैंने देखा, तो मैं वहीं टूट जाऊँगी और मेरी बची-खुची इज़्ज़त भी चली जाएगी।
मैं स्टेशन पर पहुँची। अब बारिश हो रही थी। और उस बारिश में, मेरे आँसू बेतहाशा बहने लगे। मैंने अपनी आँखों को बंद किया और महसूस किया कि मेरा दिल सिर्फ़ टूटा नहीं था—वह निकाला गया था। जिस वजूद को मैंने पूरी ज़िंदगी ‘अभिषेक’ के नाम से जाना था, वह आज अचानक शून्य हो गया था।
आज, मैं वापस अपने शहर में हूँ। मैं अब भी साँस लेती हूँ, मैं अब भी काम करती हूँ। लेकिन अब मैं जानती हूँ कि मेरी दुनिया का केंद्र अब मेरे अंदर है, किसी और के हाथ में नहीं।
मैंने अपने प्यार को खो दिया, लेकिन मैंने एक कड़वा सच पाया: जिस पर आप सबसे ज़्यादा भरोसा करते हैं, वही सबसे गहरा घाव देता है।















